हर रोज़ घर के किसी कोने में उलझी हुई सी मिल जाती थी वो 
 जब भी मुझे देखे तो मुस्कुराती थी वो 
ज़िन्दगी में उसकी न जाने कितनी भी उलझने हों 
पर मेरे लिए हमेशा सुलझी हुई मिल जाती थी वो 

जब भी कभी बचपन में ठोकर लगी और  गिरे थे हम
तो सीने  से लगा के मुस्कुरा के कहती ' देखो सारी  चीटियां मर गयीं '
हमारी तकलीफ़ों को खुद झेलती पर हमें बहलाती थी वो 

पैरों को अपने ज़मीन पर रख हमारे लिए नया आसमाँ बुनती थी 
हम चलते रहें बिना अवरोध इसके प्रयास करती थी वो  
बातें हमारी कितनी भी अजीब क्यों न हों धैर्य से सुनती थी वो 

हमारी हर छलांग के साथ एक नया आयाम छू लेती थी 
जब प्यार जताने को शब्द न हों तो माथे को चूम लेती थी 

हमारा बात - बात पर रूठ जाना उसे कभी  न भाया था 
फिर भी उसने हमें बड़े प्यार से हमें  मनाया था 

उसके प्यार के आगे कोई भी चीज़ जरूरी नहीं  होती
क्यूंकि 'माँ के प्यार' में उसकी कोई मजबूरी नहीं होती


                                                                                                                           सोनाली सिंह मिश्रा ...